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Nov 26, 2012

मेरा सच

ये जो आज है मेरा, ये वो नहीं जो बीते हुए ख्वाब थे।
आज जिंदगी बहुत अजीब है , पर वो ख्वाब बेहद  लाज़वाब थे।
ये हर पल का भारीपन, विचारों की भगदड़ और दिशाहीनता
हर  वक़्त विचारो का मुझे ऐसे घेरे रहना जैसे मुंबई की लोकल ट्रेन
और उस में  लगातार चढ़ती उतरती भीड़, उस व्यस्तता की अभ्यस्त।
पर मैं अभ्यस्त नहीं हो पायी  हूँ आज तक, ना इन विचारो से ना हीं इनकी भगदड़ से।
जब भगदड़ बढ़ जाती है तो मेरा दम घुटने लगता है, मैं टीवी चला देती हूँ की
शायद ध्यान बटे। एक और असफल कोशिश .....
अपने सातवीं  मंजिल के फ्लैट में  चिड़िया भी पर नहीं मारती है ,
ना ही किसी इन्सान की आवाज़ आती है, और बस मौका पा के
ये भगदड़ और ज्यादा बढ़ जाती है।
मैं विचारो को क्लासिफाई करने की कोशिश करती हूँ .
जैसे इन्हें छानने की कोशिश कर रही  हूँ कि कूड़ा निकल जाए
और बस काम के विचार रह जाएँ।
छानने की कोशिश में सब कुछ छन जाता है
और बस दो चार बड़े बड़े से पत्थर जैसा कुछ उपर रह जाता है .
मैंने गौर से देखा की ये क्या है जो इतना बड़ा है
आँखें सिकोड़ के देखा , और थोडा झुक के देखा
ये मेरे डर हैं, जो अपने को फुलाते हैं फिर सिकोड़ लेते हैं
अक्सर अपने को इतना बड़ा कर लेते हैं की मैं छोटी हो जाती  हूँ
और मेरे दिमाग में  दौड़ लगाते हैं .
मैं ऑंखें बंद कर लेती हूँ , तो बंद आँखों के अन्दर आ के डराते हैं
अपने रंग बदल बदल के डराते हैं,  इतने चटक चमकीले बन जाते हैं
की आँखें चुधिंयाने लगती हैं।
ये कुछ कुछ अमीबा जैसे हैं , इनका कोई आकार नहीं है
ये कुछ भी बन सकते हैं , छोटे बड़े गोल चौकोर नीले पीले काले ......
ये बहुत डरावने हैं , अक्सर सुबह तीन बजे मेरी नींद पर कब्ज़ा कर लेते हैं
और मिल के मेरा खून चूसते हैं .
मुझे पता है कि  ये एक छलावा हैं लेकिन फिर भी ये मुझे डराते हैं
बिलकुल वैसे ही जैसे भूत होते हैं , नही हो के भी होते हैं ,
सबको नहीं पर कुछ को दिखते हैं , बात करते हैं , परेशान करते हैं
कोशिशो के बावजूद नहीं जाते हैं, और जब तब धमक जाते हैं।
मैं बहुत समर्थ, खुशमिजाज़ , आत्मनिर्भर  और संपूर्ण हूँ
पर मेरा एक सच ये भी है की मैं बहुत असहाय हूँ
बिलकुल वैसे जैसे एक सिक्के के दो पहलू ..
समय के साथ मेरा दूसरा सच जैसे पहले सच के उपर हावी होता जा रहा है
मैं इस भंवर से निकलने की कोशिश में और गहरे डूबती जा रही हूँ ,
गोल गोल गोल गोल घूमती हुए पानी की लहरों के साथ नीचे डूबती हुई
दम घुट रहा है, दिमाग विचार शून्य हो गया है .
दुनिया अपनी रफ़्तार से चल रही है, सुबह होती है , शाम होती है
टीवी चलता रहता है, कूड़े वाला कूडा लेने आता है , दिवाली मांगता है
मैंने उसे पचास रुपये देती हूँ , तभी दूर से आवाज़ आती है, कूकर ठीक करा लो
रद्दी पप्पोर .......पप्पोर ... पिलाट्टिक बेच डालो
किसी को नहीं पता मैं इस भंवर में  फँसी हूँ ,
मेरे डर अब मछली बन गए हैं मेरे चारो तरफ तैर रहे हैं
अपने मुह से डुब  डुब  हवा के बुलबुले छोड़ रहे हैं. 
कोई भी नहीं जो मेरा हाथ पकड़ के मुझे ऊपर खींच ले
कोई नहीं जो ये कह दे की भूतों की तरह ये डर भी  भगाए जा सकते हैं हमेशा के लिए
इन्हें बोतल में  बंद कर गहरे कुएं में  फ़ेंक देंगे ताकि ये कभी वापस ना आयें
मुझे अक्सर लगता है कि वो लोग कितने सुखी हैं जिन्हें ये डर परेशान नहीं करते। क्या सच मैं ऐसे कुछ लोग हैं ?
मैंने एक डर को हाथ में  उठा लिया. गन्दा, लिजलिजा सा कुछ था वो
मैंने उसे उलट पुलट के देखा , उसका निचला हिस्सा कुछ सूखा हुआ सा था। सूख कर झड़ने को तैयार,  बिलकुल वैसे ही
जैसे बच्चे के जन्म के बाद उस की प्लेसेंटा सूख के झड जाती है 
मैने  गौर से उसे देखा उस में  सलवटे पड़  गयी थीं .
मैंने सलवटो को थोडा खोलने की कोशिश करी
अन्दर  मेरे वही ख्वाब थे पर उनकी  आत्मा सूख चुकी थी और
बिना आत्मा के मेरे वही ख्वाब गंदे लिजलिजे और डरावने  डर बन गए थे
मेरे साथ साथ चल रहे हैं बिलकुल वैसे ही जैसे कभी मेरे ख्वाब चला करते थे .
अब न ही इन्हें फ़ेंक सकती हूँ न ही  रख सकती हूँ
क्युकी ये वो ही हैं जो मेरे ख्वाब थे पर ये ही मेरे आज के सबसे बड़े डर हैं।


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3 comments:

Happy New Year