एक सुबह अचानक ऐसा लगा जैसे.....
जाड़ों की गुलाबी धूप ने उठ के अंगड़ाई ली,
एडियों पे उचक के आसमान को देखा
अलसाई आँखों को मलते हुए अपने पंख फैलाये
तो बंधे हुए केश ढलक के कंधो पर आ गिरे.
काली घनी केशराशी, खुल के बिखर जाने को उतावली,
हवा के झोंको की लय मैं बार बार उड़ के उसके गुलाबी गालो से टकराती हुई अपने मैं मस्त.
हवा के झोंको की लय मैं बार बार उड़ के उसके गुलाबी गालो से टकराती हुई अपने मैं मस्त.
उसने पंख पसारे और चल पड़ी हवा के साथ.
उसके पंखो की गरमाहट हवाओ मैं खुशबू बन के बिखर गयी ........
उसके पंखो की गरमाहट हवाओ मैं खुशबू बन के बिखर गयी ........
पाले से भीगा हुआ एक खुम्बानी का पेड़ उनींदा सा खड़ा था.
उसमें टप से एक कोपल फूट आई, छोटी सी चटक लाल रंग की, एक टहनी की ओट से झांकती हुई.
बिलकुल ऐसे,
जैसे... एक नन्हा शिशु अपने माँ के आँचल मैं छुपा दूध पीता अचानक आँचल के झरोखे से जरा सा झांके और हंस दे. निर्दोष, निष्पाप,अबोध अपनी चमकीली आँखों में जीवन समेटे हुए. खुबानी के बचे खुचे पत्ते हवा के साथ हिले जैसे उसके आने का जश्न मना रहे हों.
जैसे... एक नन्हा शिशु अपने माँ के आँचल मैं छुपा दूध पीता अचानक आँचल के झरोखे से जरा सा झांके और हंस दे. निर्दोष, निष्पाप,अबोध अपनी चमकीली आँखों में जीवन समेटे हुए. खुबानी के बचे खुचे पत्ते हवा के साथ हिले जैसे उसके आने का जश्न मना रहे हों.
वो हवा की लय से लय मिलाती हुई पंख फैलाये उड़ रही थी. एक पल पेड़ के पास रुकी, नन्ही कोपल को छुआ मानो कह रही हो तुम ही तो जीवन का आरम्भ हो.
वह आगे बढ़ चली बिजली सी रफ़्तार लिए और पीछे छोड़ गयी वही खुम्बानी का पेड़ जो अब इतराता सा खडा था, गुलाबी फूलो से सराबोर जो झर झर झरते थे उस की रफ़्तार से सुर और ताल मिलाते हुए.
पेड़ों पत्तों डालियों को छूती हुई वो आगे बढ़ चली नदियों के साथ साथ बहती हुई ,
पहाड़ों से आँख मिचोली खेलते हुए मानो कहतो हो" जरा छू के दिखाओ मुझे"
उसके आने से जैसे पहाड़ों मैं एक बार फिर जीवन लौट आया है.
चटक हरे पत्ते डालियों पर खिल रहे हैं, कलियाँ जैसे फूल बन कर खिलने को आतुर हुई जा रही हैं .
पीले सरसों की चादर सीढ़ीदार खेतो पर बिछ चुकी है और उसकी खुशबू सांसो में भरी जा रही है.
पहाड़ के कठिन जीवन के बीच जैसे अचानक जीवन्तता का उल्लास आ गया है
ढोलक और तबले की थापों के साथ कई सारे स्वर आल्हादित हो कर गा रहे हैं
"होली खेलो फागुन ऋतू आय रही"
पहाड़ो से टकराकर गूंजती हुई ये आवाजें मानो कह रही हों .
Wow...Wonderful imagination and beautifully crafted on the wall. Quite refreshing... Reminding me the childhood days and the apricot tree just infront of my courtyard. The season when all the trees filled with the blossoms. And its been welcomed by celebration in the form of a festival. Commonly known as "fooldei" in Kumaon reason.
ReplyDeleteWelcoming Falgun... "The colors"
Saawan ne aisa kya gunaah kar diya ki aapke vicharon ne uske liye apne darwaze band kar rakhe hain... Baarish ki boondon mein apne vicharon ko ek baar belagaam ho kar bheeg jane dijiye, phir shayad unhein bhi sawan ke baare mein sochne ka man kar jaaye aur hamein ek aisi hi umda KAIVITA padhne ko mil jaye....
ReplyDeleteThanks for your comment Swapnesh.
ReplyDeletebahut khoobsoorat !!
ReplyDeleteThanks Varsha.. Lets be in touch.
ReplyDeleteBahut sundar about fagun
ReplyDeleteMai bhi blog likhti hu
Nanhikopal.blogspot.com