बिखरते पारिवारिक और मानवीय मूल्यों के बीच
अक्सर मुझे "एक अकेला व्यक्ति" दीखता है.
मानो किसी बहती हुई पहाड़ी नदी में पड़ा हुआ बड़ा सा काला पत्थर.
नदी की लहरें हर पल बदलती , दिशा, रास्ते , ऊँचाई, गहरायी अनुसार
पर ये जैसे का तैसा, जहां का तहां, अपने प्राकृतिक स्वभाव और स्वरुप के साथ
जाने कितने कदम इस पे चढ़ के नदी पार कर गए, कितने बहते हुओं को इसने बचाया
बिना किसी उम्मीद में, अपना कर्तव्य निभाया.
ये व्यक्ति हर घर में है . कहीं पिता है तो कहीं बड़ा भाई
जो एक अनदेखी सूली पे चढता है अपने - अपनों के लिए,
कभी भाई बहन - तो कभी बच्चों के लिए.
पर जब कभी उस पर मुसीबत आती है, पत्नी बीमार पड़ जाती है,
आँखों में केटरेक्ट और बुढ़ापे में पीठ झुक जाती है.
...................
वो मुड़ के देखता है ये सोचते हुए
वो बिना कहे उसके साथ होंगे - "जैसे कि वो कभी था "
वो बिना कहे उसे आर्थिक मदद को पूछेगे - "जैसे कभी उसने उनकी जरूरतों को अपना समझा था "
वो बिना कहे उस का हाथ थाम लेंगे - "जैसे उसने हमेशा थामा था "
वो ऑपरेशन थिएटर के बाहर उसके साथ खड़े होंगे - "जैसे वो उनके तपते बुखार में रात भर जगा था"
क्युकी वो उसका परिवार है , "उसके अपने लोग , अपना खून , अपने रिश्ते "
..................
पर वो देखता है,
उसका परिवार जाने कहाँ चला गया और वहाँ कुछ रोबोट खड़े हैं.
वो रोबोट बिलकुल उसके अपनों जैसे दिखते हैं.
ये उनको अपना दुःख बताता , आँखों में आंसू और गला रुंध जाता.
पर उनका हर एक्शन रिएक्शन कैल्कुलेटेड है, किसी का कम किसी का ज्यादा
पर लगभग एक जैसा ...
मानो सबको एक ही बैटरी से चार्ज किया गया हो जिसका नाम है - प्रैक्टिकैलिटी
सुना है - इस ऊर्जा से चार्ज होने के बाद इंसान के अन्दर मानवीय भावनायें कम होने लगती है
और धीरे धीरे मर जाती हैं .
इस उर्जा को यदि पैसे की उर्जा का साथ मिल जाता है तो ये इन्सान को रोबोट में बदल देती है
इस रोबोट में रिश्ते , भावनाए और संवेदनाओ के प्रति रियेक्ट करने के बटन बनाये ही नहीं जाते
ताकि कोई गलती से भी उनको ऑन न कर दे .
इस बेवक़ूफ़ की आँखों में आंसू हैं. वो ठगा सा खड़ा अपने परिवार को ढूँढ़ रहा है
पूरे माहोल में प्रैक्टिकैलिटी की हवा बह रही है, और इसका दम घुट रहा है.
ये भागना चाहता है पर भाग नहीं पाता.
ये समझ नहीं पाता की ये सच है या छलावा,
आश्चर्य, दुःख , अपमान , घ्रणा , विश्वासघात की मिली जुली
भावनाओ से आहत ये ठगा हुआ महसूस करता है पर
अपनों से छले जाने की पीड़ा के साथ हर पल जीता है.
दुनिया चलती रहती है जिंदगी आगे बढती रहती है और सब काम भी हो ही जाते हैं.
आज सालो बाद उम्र के एक पड़ाव पर खड़ा ये आज भी न समझ पाया,
की वो एक रोबोट क्यों न बन सका ?
क्या रोबोट बनना इतना कठिन है ?
क्यों वो एक इन्सान था, इन्सान है और इन्सान ही रहा ?
क्यों उसमें वो बटन ही नहीं जिन्हें वो ऑफ कर सके ?
" रिश्ते, भावनाए और संवेदनाओ के प्रति रियेक्ट करने वाला इन्सान
सड़क पर भूखे आदमी को खाना खिलाने वाला इन्सान
किसी की शव यात्रा में कन्धा देने वाला इन्सान,
गरीब बूढ़े का चश्मा ठीक कराने वाला इन्सान
मजदूर की झोपडी में जा के उसके नवजात के हाथ में कुछ रुपये रख आने वाला इन्सान
गरीब बच्चो को मुफ्त में पढाने वाला इन्सान ............
दुसरों के लिए बिना किसी स्वार्थ के सोचने वाला इन्सान "
पर अंततः केवल एक इन्सान ...
वो कभी एक रोबोट नहीं बन पाएगा, कम से कम इस जन्म में तो नहीं ...
Relations are not merely to tag and drag along but acknowledging some one's contribution in your journey from a child to a self sustained person. It is not just trying to repay with money but giving the true credit to what he /she has done to help you reach, where you stand today. Remember you were nothing when you started. it's just because someone chose to consider you above his own personal interests, to hold your hand and help you in the journey of life when you needed it most.. Ask yourself Did you choose to do / are you doing enough for those who did much much more then enough for you without even thinking twice. Unfortunately if you observe carefully you will find at least one such "इन्सान " in every family who is left after being used by his own beloved ones. Sad but true... the reality of today's word.
ASK YOUR SELF: Is this the person who sacrificed for me to be there where I stand today? IF YES THEN The least you can do is GIVE HIM THE RESPECT HE UNDOUBTEDLY DESERVES.
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