जीवन और इसमें गुरु को क्या समझा जाये?
यदि आज के परिप्रेक्ष में लिखना हो तो विश्व के मौजूदा विध्वंसकारी हालत, कोरोना प्रकोप और देश के दो बेहतरीन कलाकारों के निधन के बाद तो केवल जीवन की क्षणभंगुरता ही दिखाई देती है। शायद यही जीवन है जिसकी प्रकृति निरी क्षणिक है और इससे जुड़े सभी आयाम भी। इसके पार जो आयाम हैं वहाँ से गुरु की सर्वोच्च कृपा और मार्गदर्शन का आरंभ होता है।
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मेरा अनुभव - 2013 में लंबी बीमारी के बाद मेरे पिता (जिनसे मेरा अत्यधिक जुड़ाव है) की मृत्यु से ले कर अन्त्येष्टि तक उपजे वैराग्य की तीव्रता बेहद अधिक थी, पर शायद यह मेरा सौभाग्य था या मेरे गुरु के सानिध्य का प्रभाव कि जीवन की इस क्षणभंगुरता के एहसास का एक बारीक धागा तब से ले कर आज तक मेरे अंतर्मन में बंधा ही रह गया।
इसने कभी भी आत्मा से विरक्ति के भाव को पूरी तरह जाने नहीं दिया और समय के साथ अनेक संत आत्माओं के विचारों को पढ़ते सुनते रहने से चुपचाप एक अनोखा सत्संग चलता रहा और हृदय इसमें भीगता रहा... आज भी भीगता है और एक अजीब सा रस मिलता है। कठिन से कठिन समय में भी यह सत्संग ने मुझे आत्मिक शक्ति दी है और कई बात टूटते हुए मन को हिम्मत और प्रेरणा भी।
पर इस सब से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इस सत्संग ने मुझे यह अटूट विश्वास दिया की एक सच्चे गुरु की छत्रछाया आपके जीवन को अजीब तरीके से ढालती है और विस्मित कर देने वाले अंदाज़ में आपके सारे पुराने,मजबूत, बने बनाए विश्वास और धारणाओं को तोड़ कर आपको एक नया व्यक्तिव बनने के लिए बाध्य कर देती है। यहाँ तक भी बात समझ में आती है पर यह प्रक्रिया तब और भी ज्यादा बोझिल और थका देने वाली होती है जब आप के सर्वोच्च हित को समझते हुए यह आप पर लादी जाती है। बिलकुल वैसे ही जैसे डॉक्टर रोगी की क्षणिक असुविधा और दर्द की परवाह न करते हुए एक चीरा लगाये और तीव्र वेदना के बीच उस काँटें को निकाल दे जो अगर भीतर रहता तो समय के साथ नासूर बन जाता।
इस बात को पक्का जान लें कि एक सच्चा गुरु अपने भक्त या शिष्य के ऐसे संभावित नासूरों को भली प्रकार समझता है और यह भी कि किन कर्मों के कारण यह कांटे आत्मा में गड़े हुए हैं। वह यह भली प्रकार जानता है कि अगर इन काँटों को न निकाला गया तो शिष्य कभी भी आत्मिक उन्नति नहीं कर पायेगा।
पर यह भी उतना ही सच है कि सच्चे गुरु यह सब के लिए नहीं करते। यह चीरा उन्हीं को लगाया जाता है जो इस दर्द को सहने के योग्य हों और इस इलाज़ को झेलने की क्षमता रखते हों। साथ ही जो अपने हृदय में इस अटूट विश्वास को सँजो लें कि मेरा गुरु जो कह रहा है, कर रहा है वही मेरे लिए उचित है और मेरे सर्वोच्च हित में है। शंका भी आएगी, मन भी भटकेगा पर घूम फिर के सुई का काँटा गुरु पर ही अटकना चाहिए। यदि ऐसा है तो सद्गुरु की कृपा की पात्रता के लिए लगभग 1 पैसे की तैयारी आपने कर ली है। यह विश्वास और समर्पण जितना गहरा होगा पात्रता बढ़ती जाएगी। इसके लिए मन को बार बार पकड़ कर गुरु के चरणों में लगाना पड़ेगा। ये फिर भी भागेगा क्यूंकि यह इसकी प्रकृति है। लेकिन जब आपके प्रयास निरंतर और प्रभावी होंगे और एक निश्चित स्तर तक पहुँच जाएंगे तब गुरु की एक गहन दृष्टि आपके भीतर के इस भटकाव को स्थिर कर देगी।
तो वापस सवाल पर आते हुए मेरा यही निचोड़ है कि जीवन को पूरे आह्लाद और उत्साह के साथ जीते हुए इस की क्षणभंगुरता को न भूलें। जीवन में अन्य कामनाओं के साथ साथ सदगुरु की कामना भी अवश्य करें इस कामना को करने से ही सद्गुरु के जीवन में आने के द्वार खुलेंगे। यदि यह द्वार खुल गए तो प्रकृति और विराट की अनंत संभावनाएं आपको जीवन की इस क्षणभंगुरता और इससे जुड़ी सीमित सोच से कहीं आगे और बाहर ले जाने में सक्षम बना सकती हैं।
मैंने इस कृपा का कुछ अंश श्री गुरु जी के सानिध्य में अनुभव किया है जिन्हौने मेरे पिता के जाने के बाद उस रिक्तता को अपनी असीम कृपा, निरंतर स्नेह, सानिध्य और कभी कभी नकली डाँठ के साथ भरा है। जीवन के कठिन समय को हाथ पकड़ के पार करवाया है बिना किसी अपेक्षा के। श्री गुरु जी अक्सर कहते हैं मैं उनकी कृपा (ईश्वर की) में सब कुछ हूँ और मैं कहती हूँ कि समय ने यही सिखाया है कि मैं आपकी कृपा के बिना कुछ भी नहीं हूँ।
(जय श्री शक्ति धाम सिद्धेश्वर महादेव ** जय श्री पूज्य गुरु जी )
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